मेघ राज मित्र, 9888787440
राम लाल मेरा मित्र था। हम दोनो एक ही स्कूल में पढाते थे। सुबह ही स्कूल में आकर उसका पहला कार्य फूल तोडना और सूर्य देवता को भेंट करना होता था। बगीचे में बडी परिश्रम से उगाये और खिले हुए फूल सभी को खुशी देते थे। जब वह फूल तोडता तो हमें बहुत दुख होता। कई बार बातों-बातों में हम उसको हमारे इस दूूख का अहसास करा देते थे। परन्तु उसने कभी गुस्सा नहीं किया था।
वह स्कूल आने से पहले गौशाला में जाता और गाय के ताजा दुहे हुए दूध का नाशता करता। हमने उसे पूछा, ‘‘राम लाल आप 50 बर्ष की आयु में इतना दूध कैसे हजम कर लेते हो ?’’ तो वो कहता कि ‘‘मैं हर दिन बीस किलोमीटर साईकिल चलाता हूं।’’ हमें उसकी यह बात तो ठीक लगती कि साईकिल चलाने से दूध हजम हो जाता होगा लेकिन उस द्वारा बिना गर्म किए दूध पीना हमारी संतुष्टी नहीं करवाता था।
समय बीतता गया। एक दिन राम लाल कहने लगा, ‘‘बादाम बहुत गर्म होते हैं।’’ मैं खाने वाली वस्तुओं में केलोरीयों के कम अथवा ज्यादा होने में विश्वास रखता था। बादाम गर्म होने वाली बात मुझे हजम नहीं हो रही थी। मैने उसे कहा कि ‘‘बता मैं तेरे को कितने बादाम खाकर दिखाऊं।’’ वह कहने लगा कि आप बीस बादाम भी नहीं खा सकते। हमारी सौ रुपये की शर्त लग गई। उसने दुकान से बादाम मंगवा लिए। वह एक-एक बादाम मेरे हाथ पर रखता गया और मैं खाता गया। इस तरह मैने उस दिन दो बार २०-२० बादाम खाकर उस से दो सौ रुपये जीत लिए।
अब उसको अपने हारे हुए दो सौ रुपये चुभते रहते थे। वह दूसरे दिन कहने लगा कि ‘‘अगर आप मेरे साथ सौ रुपये की शर्त लगा सकते हो तो मैं आप को गौमूत्र पी कर दिखा सकता हूं। मैं यह नजारा देखने के लिए तैयार हो गया।
गांव संघेडा की गौशाला से एक बरतन में गौमूत्र लाया गया। राम लाल ने उस बरतन से एक गिलास भरा और पी गया। उसने शर्त के सौ रुपये मेरे से वापस ले लिए। इस के साथ ही एक और शिक्षक कहने लगा ‘‘आप की जेब में हमारे सौ रुपये और रह गए हैं। वो भी हमने वापस करवाने हैं।’’ मैं कहा ‘‘एक गिलास तु पी ले।’’ उसी समय उसने गौमूत्र का गिलास भरा और पी लिया।
इस बात को बीस बर्ष से ज्यादा समय हो गया है।
फिर एक दिन मुझे मानसा से फोन आया। डा़ सुरेन्द्र कहने लगे कि मानसा में किसी पार्टी ने छबील लगाई हुई है। वह गौमूत्र लोगों को मुफत में पिला रहे हैं। वह कहते हैं, गाय का मूत्र अगर रोजाना पी लिया जाए तो कैंसर, मदुमेह, गुर्दे फेल हो जाना, टीबी और दिल के रोग कभी होंगे ही नहीं। अगर किसी को पहले से कोई बिमारी है तो वह हमेशा के लिए ठीक हो जाएगी। इस बात से 10-12 साल पहले बिछुडे हुए मेरे दोस्त राम लाल का चेहरा मेरे सामने आ गया।
राम लाल की गौमूत्र पीने की बात कई माह तक चलती रही। मुझे पता था कि किसी भी प्राणी का मूत्र एक तरह का उसका रक्त ही होता है। हमारे गुर्दे रक्त को बार-बार छान कर एक लिटर पेशाब अलग करते हैं। मूत्र में उन सभी पदार्थों की कुछ न कुछ मात्र रह जाती है जो रक्त में होती है। मेरे देश के लोग गौमूत्र को पवित्र मानते हैं लेकिन गाए के मास को खाना पाप समझते हैं। क्यों? हमारे देश में गौमूत्र की मान्यता इस करके है क्योंकि हमारे देश के लोग गाए को माता कह कर पूजते हैं। अपतिु आज के मशीनी युग में गाए की मान्यता को कम कर दिया गया हैं।
आज हमारे देश में गौमूत्र का हजारों वस्तुओं में प्रयोग किया जा रहा है। जैसे – शिंगार का समान, बालों के तेल, संदल की लकडी, आयुर्वेद की दवाएं, कोका कोला और पैपसी।
एक दिन मेरे बेटे को रात को नींद नहीं आ रही थी। उसने सोने की बहुत कोशिश की परन्तु उसे नींद नहीं आ रही थी। उसने अपने कमरे में मरी हुई छिपकली और चूही को ढूंढने का प्रयत्न भी किया। क्योंकि कमरे से बदबू आ रही थी। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रही था। सुबह मेरे पोते ने मेज पर पडी तेल की बोतल पर लगा लेबल पढा तो वो कहने लगा, ‘‘रात सारिका चाची ने जो बाबा रामदेव का तेल बालों में लगाया था, उसमें गौमूत्र है।’’ तब पता चला कि रात नींद न आने का माजरा क्या था? कहते हैं कि उत्तराखंड की सरकार ने तो भैसें और गाए के दूध की तरह गौमू़त्र घरों से खरीदने की दुकानों के प्रबंध भी करने शुरु कर दिए हैं
किसी समय मैंने सुना था कि अर्ब के लोग ऊंट के पेशाब को दवाई के रुप में इस्तेमाल करते हैं, सुडान के लोग बकरी के पेशाब को विशेष मानते हैं, नाईजीरीआ में बच्चों को पडने वाले मिर्गी के दौरेे को रोकने के लिए उन के मुंह में गौमूत्र डाल देते हैं। एक बात मेरे समझ में नहीं आ रही है कि अगर अर्ब के लोगों को गौमूत्र पीने की राए दी जाए तो वो कहेगे, ‘‘चेहरा अच्छा नहीं है तो बात तो अच्छी कर लिया कर।’’ आज विज्ञान की खोजों ने पूरी दुनिया को एक गांव के रुप में बदल दिया है। पर हमारे देश में अलग-अलग खित्तों के अंधविशवास उसी तरह मौजूद हैं। हमें दूसरों के अंधविशवास पर तो हंसी आती है पर अपने अंधविशवास पर हम चुप कर जाते हैं।
इस बात में पूरी सच्चाई है कि गाय अथवा और जानवरों के मूत्र में दो दर्जन से ज्यादा तत्व और योगिक पाए जाते हैं। इन में नाईटर्रोजन, सलफर, अमोनीया, कापर, आयरन, यूरिया, यूरिक ऐसिड, फासफेट, सोडियम और पोटाशीयम प्रमख हैं। क्या यह सभी मानव शरीर के लिए फायदेमंद हैं? नहीं, यह असंभव है। अगर इन में से कुछ हमारे शरीर के लिए फायदेमंद होंगे तो अवश्य ही नुकसान करने वाले भी होंगे। इस लिए जरुरत है यह जानने की कि कौन से लाभकारी हैं और कौन से नुकसान करने वाले हैं।
कई बार ज्यादा आयु में गाय के गुर्दे भी फेल हो जाते हैं और वह रक्त को अच्छी तरह फिलटर नहीं कर पाते। ऐसी हालत में कई बिमारीयों के जर्म भी मानव शरीर में दाखिल होने की शंका बनी रहती है। असल बात यह है कि भारत में गाय का मांस का इस्तेमाल रोकने के लिए गौमूत्र के फायदों का प्रचार एक पूरी तरह बनाई गई
योजना से ही किया जा रहा है। यहां तो गाय की भरी गाडी को रोकने के लिए मानव शरीर को आग में जला कर यह माना जाता है कि जानवरों की कीमत मानव से कहीं ज्यादा है। ऐसी बहुत सी घटनाएं भारत के कई हिस्सों में हुई हैं। सरकारें और न्यायलय कभी भी कोई गंभीर कार्यवाई नहीं करते।
बाबा रामदेव जी अपनी दवायों में गौमूत्र का इस्तेमाल बहुत ज्यादा कर रहा है। आधा लिटर गौमूत्र 70 रुपये में बेचा जा रहा है। हजारों व्यापारीयों को व्यापार करने के लिए हजारों दुकानें खोल दी हैं।
चर्क, धनबंतरी जैसे पुराने विद्वान अपने समय के तजुर्बेकार और बुद्विमान व्याक्ति थे। उन्होंने बहुत से लाभकारी नुस्खे अपनी पुस्तकों में दर्ज किए हैं। उस समय विज्ञान की खोजों की क्या दशा थी? मैं यह बात दायवे से कह सकता हूं कि 100-200 बर्ष पहले हमारे पूर्वजों के पास को चींटी मारने की भी कोई दवा नहीं थी। फिर वह शरीर के अंदर के जर्मों को कैसे मार सकते थे?
1935 में हमारे देश में आयु 35 बर्ष ही थी। चर्क के समय औसत आयु सिर्फ 20 साल की थी। आज के विज्ञान ने हमारे देश में औसत आयु 65 बर्ष कर दी है। जापानी औरतों की आयु 88 बर्ष हो चुकी है। चर्क जैसे विद्वान दो हजार साल पहले के हैं। उस मसय उनके पास जर्मों को देखने के लिए न तो कोई खुर्दबीन थी, न ही बिमारीयों का पता लगाने के लिए एक्सरे और न ही अलर्टासाउंड थे। रसायनक प्रयोशालायों का तो नाम भी नहीं था। इसलिए उस समय जर्मोंं से होने वाली बिमारीयों का कोई पता नहीं था।
आज से 60 बर्ष पहले हमारे देश में टीबी का भी कोई उपचार नहीं था। परन्तु देसी गौमूत्र तो उस समय भी ज्यादा मात्र में था। क्योंकि उस समय अमेरीकन नसलें तों हमारे देश में आई ही नहीं थी। अगर उस समय टीबी का उपचार होता तो भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की पत्नी कमला नेहरु और पाकिस्तान के जिनाह टीबी से न मरते। अपितु अमेरीकन नसल की गाय खाती तो वही भारती चारा ही हैं लेकिल मूत्र पीने के मसले में उन के साथ भेदभाव क्यो किया जाता है? आज हमारे गौभक्तों ने हमारे शहर की हालतें नर्कों से ज्यादा बुरी कर दी हैं। जिस तरफ जाते हैं गाय ही गाय नजर आती हैं। कौन सा ऐसा शहर है यहां हर साल 40-50 लोग इन का शिकार होकर अपनी टांगे नहीं तुडवाते? ज्यादा देवी-देवतायों और धाार्मिक स्थानों वाले देशों में ही ऐसी बिमारीयां और दुर्घटनाएं ज्यादा होती हैं।
बहुत से विदेशी यात्रीयों को शहर में घुूमती इन गाय की टोलियों की तस्वीरें खींचते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा है। कई बार मैं उनहें इसका कारण पूछा तो उन का जबाव होता है कि ‘‘यहां अजीब सी बात है, हमारे देश में तो पशु सडकों पर आ ही नहीं सकते।’’
आज वैज्ञानिक युग है। अपने आप को स्वस्थ रखने के लिए हमें वैज्ञानिक सोच को अपनाना होगा। वैज्ञानिक सोच कहती है कि कोई भी वस्तु मुंह में डालने से पहले उस में उपस्थित पदार्थों का पता जरुर होना चाहिए। सिर्फ लाभकारी पदार्थ ही हमारे अंदर जाना चाहिए।
गौमूत्र का भी दुनिया की अलग-अलग य्रोगशालायों में रसायनिक परीक्षण होना चाहिए। इस परीक्षण के साथ-साथ परीक्षण करने वालों की नीयत पर भी कडी नजर रखनी चाहिए कि कौन किस वस्तु का प्रचार किस नीयत से कर रहा है। जरा सी तीखी नजर गौमूत्र के बारे में हमारा नजरिया दरुसत कर सकती है।